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अन्वयः ।
अठारहवाँ प्रकरण ।
शब्दार्थ | | अन्वयः ।
न उद्विग्नम् न द्वेष है च=और
भावार्थ ।
अष्टावक्रजी कहते हैं कि जीवन्मुक्त का चित्त प्रकाश-रूप है, इसी वास्ते वह उद्वेग को नहीं प्राप्त होता है । क्योंकि उद्वेग का हेतु जो द्वैत है, वह उसके चित्त में नहीं रहा है, और संकल्प-विकल्प से भी शून्य है, इसी वास्ते उसका चित्त जगत् से निराश है, और संदेह से भी रहित है । क्योंकि संदेह का हेतु जो अज्ञान है, वह उसमें नहीं रहा ॥ ३० ॥
ज्ञानिनः = ज्ञानी का यत् = जो
चित्तम् = चित्त है
तत्वह
न संतुष्टम् =न संतोष को राजते प्राप्त होता है ॥
मूलम् । निर्ध्यातुं चेष्टितुं वापि यच्चित्तं न प्रवर्तते ।
निर्निमित्तमिदं किन्तु निर्ध्यायति विचेष्टते ॥ ३१ ॥ पदच्छेदः ।
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शब्दार्थ |
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निर्ध्यातुम्, चेष्टितुम्, वा अपि यत्, चित्तम्, न, प्रवर्तते, निर्निमित्तम् इदम्, किन्तु, निर्ध्यायति, विचेष्टते ।
अन्वयः ।
शब्दार्थ |
शब्दार्थ |
निष्क्रिय भाव में निर्ध्यातुम् = स्थित होने को
अन्वयः ।
वा अपि = अथवा
चेष्टितुम् = चेष्टा करने को न प्रवर्तते नहीं प्रवृत्त होता है किन्तु परन्तु
इदम् = वह चित्त निर्निमित्तम् = संकल्प - रहित