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अठारहवाँ प्रकरण ।
३०३ द्वैतभ्रम उसका नष्ट हो गया है । जिसको द्वैतभ्रम होता है उसी को बंध भी होता है।
प्रश्न-फिर वह ज्ञानी कैसा है ?
उत्तर-वह ब्रह्मरूप है, क्योंकि संपूर्ण जगत् उसको पूर्व ही से कल्पित प्रतीत होता है, पश्चात् वह बाधितानुवत्ति करके जगत् को देखता है, इसी कारण वह निर्विकार चित्तवाला ही होता है ।। २८ ॥
मूलम् । यस्यान्तः स्यादहंकारो न करोति करोति सः । निरहंकारधीरेण न किञ्चिदकृतं कृतम् ॥ २९॥
पदच्छेदः । यस्य, अन्तः, स्यात्, अहंकारः, न, करोति, करोति, सः, निरहंकारधी रेण, न, किञ्चित्, अकृतम्, कृतम् ।। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ । यस्य-जिसके
अहंकार-रहित अन्तः अन्तःकरण में
ज्ञानो करके अहंकारः अहंकार का अध्यास
यद्यपि-लोक-_ । यद्यपि लोकस्यात् है
दृष्टया । दृष्टि से स: वह +यद्यपि । यद्यपि लोक-दृष्टि
न किञ्चित् कुछ भी नहीं लोकदृष्टया । करके
कृतम्-किया गया है न करोति नहीं कर्म करता है
तथापि तथापि तु अपि-तो भी
स्वदृष्टया-अपनी दृष्टि से मन में सङ्कल्पादि
तत्व ह कृतम्-किया गया है।
अन्वयः।
रण
करोति- कर्म करता है