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अन्वयः।
अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
पदच्छेदः। क्व,आत्मनः, दर्शनम्, तस्य,यत्, दृष्टम्, अवलम्बते, धीराः, तम्, तम्, न, पश्यन्ति, पश्यन्ति, आत्मानम्, अव्ययम् । शब्दार्थ । अन्वयः।
शब्दार्थ तस्य-उसको
धीराः ज्ञानी आत्मनः आत्मा का
तम् तम्-उस दर्शनम् दर्शन
दृष्टम् दृष्ट को
न पश्यन्ति-नहीं देखते हैं क्व-कहाँ है
परन्तु-परन्तु यत्-जो
अव्ययम्-अविनाशी दृष्टम् दृष्ट को
आत्मानम्-आत्मा को अवलम्बते अवलम्बन करता है । पश्यन्ति देखते हैं।
भावार्थ । जो अज्ञानी पुरुष है, वह प्रत्यक्ष प्रमाणों करके ही जाने हुए पदार्थों को सत्य-रूप करके मानता है, इसी कारण उसको आत्म-दर्शन कदापि नहीं प्राप्त होता है। और जो ज्ञानी है, वह देखते हुए पदार्थों को नहीं देखता है। किन्तु उनके अन्तर्गत कारण-शक्ति सर्वत्र चिद्रप आत्मा को ही देखता है, इसी कारण वह परमात्मा में सदा लीन रहता है, और कार्य-रूपी बाह्य पदार्थ उसको कोई भी दिखाई नहीं देता है ।। ४० ॥
मूलम् । क्व निरोधो विमूढस्य यो निर्बन्धं करोति वै । स्वारामस्यैव धीरस्य सर्वदाऽसावकृत्रिमः ॥४१॥