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अठारहवाँ प्रकरण ।
३१५ पदच्छेदः । क्व, निरोधः, विमूढस्य, यः, निर्बन्धम्, करोति, वै; स्वरामस्य, एव, धीरस्य, सर्वदा, असौ, अकृत्रिमः ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ । यःजो
स्वारामस्य-आत्माराम निर्बन्धम-चित्त के निरोध को
धीरस्य-ज्ञानी को वै-हठ करके करोति करता है
सर्वदा-सदैव तस्य उस
एव-निश्चय करके विमूढस्य-अज्ञानी को
असौम्यह क्व-कहाँ
| चित्तनिरोधः-चित्त का निरोध निरोधः चित्त का निरोध है । अकृत्रिमः स्वाभाविक है ।
भावार्थ । जो अज्ञानी पुरुष शुष्कचित्त के निरोध में हठ करता है, उसका चित्त कभी निरोध को नहीं प्राप्त होता है । अज्ञानी ही चित्त के निरोध के लिये समाधि लगाता है। जब वह समाधि से उत्थान करता है, तब फिर उसका चित्त संसार के पदार्थों में फैल जाता है। और जो आत्मा में स्मरण करनेवाला योगी है, जिसका चित्त निश्चल है, उसका चित्त सर्वदा आत्मा में ही निरुद्ध रहता है, इसी कारण सर्वदा उसकी समाधि बनी रहती है ।। ४१ ॥
__ मूलम् । भावस्य भावकः कश्चिन्न किञ्चिद्भावकोऽपरः । उभयाऽभावकः कश्चिदेवमेव निराकुलः ॥४२॥