________________
अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
नियिति-निश्चल स्थित होता है | विचेष्टते= { को करता है
[ प्रकार की चेष्टा
च-और
भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि जिस ज्ञानी का चित्त संकल्पविकल्परूपी चेष्टा करने में प्रवृत्त नहीं होता है, किन्तु वह चित्त के निश्चल और शुद्ध होने से अपने स्वरूप में स्थिर होता है ॥ ३१ ॥
मूलम् । तत्त्वं यथार्थमाकर्ण्य मन्दः प्राप्नोति मूढ़ताम् । अथवाऽऽयातिसंकोचनमूढः कोऽपि मूढवत् ॥ ३२ ॥
पदच्छेदः । तत्त्वम्, यथार्थम्, आकर्ण्य, मन्दः, प्राप्नोति, मूढताम् अथवा, आयाति, सङ्कोचम्, अमूढः, कः, अपि, मूढवत् ॥ शब्दार्थ । । अन्वयः।
शब्दार्थ । आयाति प्राप्त होता है
च और . यथाथमतत्त्वम् । उपनिषदादिकों को
तथा एव-वैसा ही
कः अपि और कोई आकर्ण्य=सुन कर
अमूढः-ज्ञानी मूढ़ता अर्थात् संशय
मूढवत् अज्ञानी की तरह ताविपर्यय को
संशय-विपर्यय अर्थात् प्राप्नोति प्राप्त होता है अथवा अथवा
+वाह्यदृष्टया वाह्य-दृष्टि से सङ्कोचम्-चित्त की समाधि को | प्राप्नोति प्राप्त होता है ।
अन्वयः।
मन्दःअज्ञानी
यथार्थमतत्त्वम- तत्त्व पदार्थ अर्थात् |
मूढताम् 1 व्यवहार को