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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
भावार्थ । मुमुक्षुजन चित्त की एकाग्रता के लिये और विपरीत याचना की निवृत्ति के लिये यत्न करते हैं। परन्तु जो धीर पुरुष है, वह कुछ भी पूर्वोक्त कृत्य को नहीं देखता है । क्योंकि वह अपने स्वरूप में ही स्थित है ॥ ३३ ॥
मूलम् । अप्रयत्नात्प्रयत्नाद्वा मूढो नाप्नोति निर्वृतिम् । तत्त्वनिश्चयमात्रेण प्राज्ञो भवति निर्वृतः ॥ ३४ ॥
पदच्छेदः । अप्रयत्नात्, प्रयत्नात्, वा, मूढः, न, आप्नोति, निर्वृतिम्, तत्त्वनिश्चयमात्रेण, प्राज्ञः, भवति, निर्वृतः । शब्दार्थ । । अन्वयः।
शब्दार्थ मूढः अज्ञानी पुरुष
प्राज्ञः-ज्ञानी पुरुष अप्रयत्नात्-चित्त के निरोध से वा अथवा
32 निश्चय करने प्रयत्नात् कर्मानुष्ठान से निवृतिम्-परम सुख को
निर्वृतः कृतार्थ न अप्नोति-नहीं प्राप्त होता है । भवति होता है।
भावार्थ । जिसपुरुष को जीव-ब्रह्म की एकता का निश्चय नहीं है, वहीं पुरुष मूर्ख कहा जाता है। वह पुरुष चाहे चित्त की निरोध-रूपी समाधि को करे अथवा कर्मों के अनुष्ठान को करे, वह कदापि
अन्वयः।
तत्त्वनिश्चय- (केवल' तत्त्व के
मात्रेण
से ही