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अठारहवाँ प्रकरण ।
३०९ परम सुख को नहीं प्राप्त होता है। क्योंकि आनंद का हेतु जो आत्मा का अनुभव, वह उसको है नहीं और जो विद्वान् ज्ञानी है, वह न समाधि को और न कर्मों को करता है परन्तु निर्वृति को अर्थात् नित्यसुख को प्राप्त होता है। क्योंकि उसको कुछ कर्तव्य बाकी नहीं रहा । गीता में भी कहा है
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च संतुष्टस्तय कार्यं न विद्यते ॥१॥
आत्मा में ही जिसकी रति है और अपने आत्मानंद करके ही जो तृप्त है, आत्मा में ही जो संतुष्ट है, बाहर के पदार्थों में जिसको तोष नहीं है, उसको कोई भी कर्तव्य बाकी नहीं रहा है ।। ३४ ।।
शुद्धं बुद्धं प्रियं पूर्ण निष्प्रपञ्चं निरामयम् । आत्मानं तं न जानन्ति तत्राभ्यासपरा जना ॥ ३५ ॥
पदच्छेदः । शुद्धम्, बुद्धम्, प्रियम्, पूर्णम्, निष्प्रपञ्चम्, निरामयम्, आत्मानम्, तम्, न, जानन्ति, तत्र, अभ्यासपरा:, जनाः ।। अन्वयः। ___ शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ। तत्र-इस संसार में
पूर्णम् पूर्ण अभ्यासपरा:अभ्यासी
निष्प्रपञ्चम-प्रपञ्च-रहित जना:-मनुष्य
च-और तम-उस शुद्धम् शुद्ध
निरामयम्-दुःख-रहित बुद्धम् चैतन्य
आत्मानम् आत्मा को प्रियम्-प्रिय
न जानन्ति नहीं जानते हैं ।