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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
भावार्थ ।
जगत् में कर्मादिकों के अभ्यासपरायण जो अज्ञानी पुरुष हैं, वे उस आत्मा को नहीं जानते हैं, जो शुद्ध है अर्थात् जो मायामल से रहित है, जो स्वप्रकाश है, जो परिपूर्ण है, जो प्रपञ्च से रहित है और जो दुःख के सम्बन्ध से भी रहित है ||३५||
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मूलम् । नाप्नोति कर्मणा मोक्षं विमूढोऽभ्यासरूपिणा ।
धान्यो विज्ञानमात्रेण मुक्तस्तिष्ठत्यविक्रियः ॥ ३६ ॥ पदच्छेदः ।
न, आप्नोति, कर्मणा, मोक्षम्, विमूढः, अभ्यासरू पिणा, धन्यः, विज्ञानमात्रेण, मुक्तः, तिष्ठति, अविक्रियः ॥ शब्दार्थ |
अन्वयः ।
अन्वयः ।
विमूढः = अज्ञानी
अभ्यास रूपिणा = अभ्यासरूपी
कर्म-कर्म से
मोक्षम् = मोक्ष को
न आप्नोति नहीं प्राप्त होता है। अविक्रियः = क्रिया - रहित'
शब्दार्थ |
धन्यः=भाग्यवान्
पुरुषः- पुरुष
विज्ञानमात्रेण = केवल ज्ञान करके ही
मुक्तः = मुक्त हुआ
स्थित रहता है ॥ तिष्ठति = अर्थात् मोक्ष को • प्राप्त होता है |
भावार्थ ।
अष्टावजी कहते हैं कि हे जनक ! जो मूढ़ अज्ञानी जन है, वह कर्मों करके अर्थात् योगाभ्यास - रूप कर्मों करके भी मोक्ष को कदापि नहीं प्राप्त होते हैं ।