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न एकाग्रयम्- 1 ना है
अठारहवाँ प्रकरण ।
२८५ अन्वयः। शब्दार्थ। | अन्वयः।
शब्दार्थ। उपशान्तस्य शान्त हुए
न अतिबोधः=न बोध है योगिनः योगी को
न मूढ़ता
न मूर्खता न विक्षेपः-न विक्षेप है च-और
न सुखम्न सुख है नएकाग्र
वा और
न दुःखम् न दुःख है ॥
भावार्थ । अब संकल्प से रहित मन के स्वरूप को दिखाते हैं।
अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! जिसका मन संकल्प-विकल्प से रहित हो गया है, उसको न विक्षेप होता है, और न वह एकग्रता के लिये उद्यम करता है। क्योंकि जिसको विक्षेप होता है, वही निरोध के लिये यत्न करता है । उसको पदार्थों का अत्यन्त ज्ञान या मूढ़ता नहीं होती है, और न उसको विषयजन्य सुख या दुःख होता है। क्योंकि वह केवल आत्मानन्द में मग्न है ॥ १० ॥
मूलम्। स्वराज्ये भक्ष्यवृत्तौ च लाभालाभे जने वने। निर्विकल्पस्वभावस्य न विशेषोऽस्ति योगिनः ॥११॥
पदच्छेदः। स्वराज्ये, भैक्ष्यवृत्तौ, च, लाभालाभे, जने, वने, निर्विकल्पस्वभावस्य, न, विशेषः, अस्ति, योगिनः ।।