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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
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को करता है । जिसको कोई विक्षेप नहीं रहा है, वह विक्षेप के दूर करने के लिये चित्त का निरोध भी नहीं करता है ।। १७ ।।
मूलम् ।
धीरो लोकविपर्यस्तो वर्त्तमानोऽपि लोकवत् ।
न समाधि न विक्षेपं न लेपं स्वस्य षश्यति ॥ १८ ॥ पदच्छेदः ।
धीरः, लाकविपर्यस्तः, वर्तमानः, अति, लोकवत्, न, समाधिम् न, विक्षेपम्, न लेपम्, स्वस्य, पश्यति ॥
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अन्वयः ।
शब्दार्थ |
शब्दार्थ |
धीरः ज्ञानी पुरुष लॊकविपर्यस्तः= { लोक में विक्षेपहुआ
च=और
लोकवत् = लोक की तरह
वर्त्तमानः अपि वर्त्तता हुआ भी
नन
स्वस्य अपने
अन्वयः ।
समाधिम् = समाधि को
नन्न
विक्षेपम् - विक्षेपको च = और
न=न
लेपम् =न बंधन को पश्यति देखता है |
भावार्थ ।
जो विद्वान् है, वह लोकों में विक्षेप से रहित होकर प्रारब्धवशात् लोकों में रह करके वाधिता अनुवृत्ति करके व्यवहार को करता भी अपने आत्मा में निर्लेप स्थित है । क्योंकि न वह समाधि करता है, और न विक्षेप को प्राप्त होता है ॥ १८ ॥