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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
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के लिये वह प्रयत्न नहीं करता है । जिस पुरुष का स्त्री आदिकों में राग होता है और जो उसके संग से आनन्द मानता, वही अज्ञानी व्यभिचार के लिये प्रयत्न करता है । जिस पुरुष को कभी मिश्री खाने को नहीं मिली है और न उसके रस को जानता है, वही गुड़ या राब के खाने के लिये यत्न करता है । जिसको नित्य ही मिश्री खाने को मिलती है, वह कदापि गुड़ के रस के लिये यत्न नहीं करता है । जो नीम का कीट है या विष्ठा का ही है, वह मिश्री के स्वाद को नहीं जानता । अज्ञानी पुरुष विष्टा - रूपी विषयानन्द का स्वाद लेनेवाला है | ज्ञानवान् आत्मानन्द-रूपी मिश्री के स्वाद का लेनेवाला है, इस वास्ते अज्ञानी के आनन्द को नहीं जान सकता है ।। २५ ।।
मूलम् । अतद्वादीव कुरुते न भवेदपि बालिशः ।
जीवन्मुक्तः सुखी श्रीमान् संसरन्नपि शोभते ॥ २६ ॥ पदच्छेदः ।
अतद्वादी, इव कुरुते, न भवेत्, अपि, बालिश, जीवन्मुक्तः, सुखी, श्रीमान्, संसरन्, अपि, शोभते ।।
अन्वयः ।
उल्टा याने विरुद्ध = उस कहनेवाले की तरह कि
अहं इदं कार्य | मैं इस कार्य को न करिष्यामि नहीं करूँगा
अद्वादी_ इव
शब्दार्थ | अन्वयः ।
जीवन्मुक्तः = ज्ञानी
कुरुते = कार्य को करता है
अपि =तो भी बालिशः = मूर्ख
शब्दार्थ |
न भवेत्= | को नहीं प्राप्त होता है नहीं होता है अर्थात् मोह
अतएव = इसी लिये
संसरन्= { व्यवहार को करता