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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
अन्वयः। शब्दार्थ । अन्वयः।
शब्दार्थ। प्रकृत्या स्वभाव से
धीरस्य-ज्ञानी को यदृच्छया-प्रारब्ध करके
नन्न प्राकृतस्य-अज्ञानी की
मानः-मान है इव-तरह
च-और कुर्वतः करता हुआ
नम्न अस्य-इस
| अवमानता अपमान है ।। शून्यचित्तस्य-विकार रहित चित्तवाले ।
भावार्थ ।
स्वभाव से ही जिसका चित्त शून्य है, अर्थात् विकार से रहित है, कदापि विकारी नहीं होता है । आत्मा में ही जो शान्ति को प्राप्त हुआ है, ऐसा जो ज्ञानवान् पुरुष है, व अज्ञानी की तरह प्रारब्धवश से चेष्टा को करता हुआ भी हर्ष और शोक को नहीं प्राप्त होता है। अपने मानअपमान का भी उसका अनुसंधान नहीं है ।। २४ ।। अब ज्ञानी के अनुभव को दिखाते हैं
मूलम् । कृतं देहेन कर्मेदं न मया शुद्ध रूपिणा । इति चिन्तानुरोधी यः कुर्वन्नपि करोति न ॥ २५॥
पदच्छेदः । कृतम्, देहेन, कर्म, इदम्, न, मया, शुद्धरूपिणा, इति, चिन्तानुरोधी, यः, कुर्वन्, अपि, करोति, न ।।