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अन्वयः ।
अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
शब्दार्थ |
असंसारस्य ज्ञानी को
नन
तु=तो क्व अपि = कभी
हर्ष हर्ष है च = और
नत
अन्वयः ।
विषादता शोक है
शब्दार्थ |
सः = वह
शीतलमना शान्त मनवाला नित्यम् = सदा
विदेहः इव - मुक्त की तरह् राजते = शोभायमान रहता है ||
भावार्थ |
अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! ज्ञानी संसार से रहित है । संसार का हेतु अर्थात् कारण अज्ञान जिसमें न रहे, उसी का नाम असंसारी है और हर्षं विषादादि भी उसमें नहीं उत्पन्न होते हैं, इसी से वह शीतल हृदय है और विदेहमुक्त की तरह वह रहता है || २२ ॥
मूलम् ।
कुत्रापि न जिहासाऽस्ति आशा वाऽपि न कुत्रचित् । धीरस्य शीतलाच्छतरात्मनः ॥ २३ ॥
आत्मारामस्य
पदच्छेदः ।
कुत्र, अपि, न, जिहासा, अस्ति, आशा, वा, अपि, न, कुत्रचित्, आत्मारामस्य, धीरस्य, शीतलाच्छतरात्मनः ॥