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अठारहवाँ प्रकरण |
दाष्टन्ति ।
अज्ञान के वश होकर जो अपने आत्मा को तीर्थों में और पर्वतों में खोजता फिरता है, वह दशवें पुरुष की तरह अपने को नहीं जानता है । जब गुरु उसको उपदेश करता है, तब वह जानता है कि सुख रूप आत्मा मैं हूँ । इसलिये गुरु और शास्त्र की भो आवश्यकता है ।
तात्पर्य यह है कि जिसने गुरु और शास्त्र के उपदश को श्रवण करके अपने स्वरूप का निश्चय कर लिया है, उसके अन्तःकरण में फिर मोह-रूपी आवरण कदापि नहीं रहता है, किन्तु वह संसार में शोभा को प्राप्त होता है ।। ६ ।।
मूलम् ।
समस्तं कल्पनामात्रमात्मा मुक्तः सनातनः । इति विज्ञाय धीरोहि किमभ्यस्यति बालवत् ॥७॥ पदच्छेदः ।
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समस्तम्, कल्पनामात्रम्, आत्मा, मुक्तः सनातनः, इति, विज्ञाय, धीर:, हि, किम्, अभ्यस्यति, बालवत् ॥
अन्वयः ।
शब्दार्थ । अन्वयः ।
समस्तम् = सब जगत्
कल्पनामात्रम् = कल्पना मात्र है
आत्मा आत्मा
मुक्त: मुक्त है
च=और
सनातनः- सनातन है
शब्दार्थ |
इति = ऐसा
विज्ञाय ज्ञान करके धीरः=पंडित
बालवत् = बालकों की नाई किम् = क्या
अभ्यस्यति = अभ्यास करता है ॥