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२८० अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० विचार की और आचार्य के उपदेश की क्या आवश्यकता है?
उत्तर-अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! अज्ञानरूपी मोह का आवरण सबके अन्तःकरण में हो रहा है। उस आवरण करके आत्मा का साक्षात्कार किसी को नहीं होता है । उस आवरण के दूर करने के लिये गुरु और शास्त्र की आवश्यकता है।
जैसे दश पुरुषों ने एक नदी के पार उतर करके कहा कि सबको गिनती कर लो, कोई नदी में बह तो नहीं गया है। उनमें से एक पुरुष जब गिनती करने लगा, तब उसने अपने को छोड़कर औरों को गिना, तब नव आदमी गिनती में आए। उसने कहा, दशवाँ पुरुष नदी में बह गया है। फिर दूसरे ने गिना, तब उसने भी अपने को छोड़ करके ही गिना, तब भी नव ही पुरुष पाए गए। इसी तरह हरएक ने अपने को छोड़ करके गिना और एक कम पाया। तब उन सबको निश्चय होगया कि दशवाँ पुरुष नदी में बह गया, ता फिर वे सब मिलकर रोने लगे। उधर से एक बुद्धिमान् पुरुष आया, जसने उनको रोते देखकर पूछा, तुम क्यों रोते हो ? उन्होंने कहा, हम दश आदमी नदी से पार उतरे, उनमें से एक आदमी नदी में बह गया है। उनकी वार्ता को सुनकर उस आदमी ने जब उनको गिना, तब वे दश पूरे थे। उसने जाना ये सब मूर्ख हैं । तब उनसे कहा, हमारे सामने तम फिर गिनो। उसके सामने जब एक उनमें से गिनने लगा, तब उसने अपने को न गिना, और कहा केवल नव हैं। तब उसने कहा, दशवाँ तू है । तब उसको ज्ञान हुआ कि हम सब पूरे हैं, कोई भी बहा नहीं।