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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
पदच्छेदः। पश्यन्, शृण्वन्, स्पृशन्, जिघ्रन्, अश्नन्, गृह्णन्, वदन्, व्रजन्, ईहितानीहितः, मुक्तः, एव, महाशयः ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ । पश्यन्-देखता हुआ
व्रजन्-जाता हुआ शृण्वन् सुनता हुआ | ईहिता नीहितः राग-द्वेष से स्पृशन्-स्पर्श करता हुआ
मुक्तः छूटा हुआ जिघ्रन्-सूघता हुआ
. एव-निश्चय करके ऐसा अश्नन्-खाता हुआ
महाशयः-महात्मा पुरुष गृह्णन् ग्रहण करता हुआ
मुक्तः ज्ञानी है ॥ वदन्बोलता हुआ
भावार्थ। सर्वत्र देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, ग्रहण करता हुआ, बोलता हुआ
और चलता हुआ भी इच्छा-द्वेष से रहित ही होता है। क्योंकि उसका चित्त महान् ब्रह्म विषे स्थित है, और इसी से वह जीवन्मुक्त है ॥ १२ ॥
मूलम् । न निन्दति न च स्तौति न हृष्यति न कुप्यति । न ददाति न गृह्णाति मुक्तः सर्वत्र नीरसः ॥ १३ ॥
पदच्छेदः । न, निन्दति, न, च, स्तौति, न, हृष्यति, न, कुष्यति, न, ददाति, न, गृह्णाति, मुक्तः, सर्वत्र, नीरसः ।।