SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० पदच्छेदः। पश्यन्, शृण्वन्, स्पृशन्, जिघ्रन्, अश्नन्, गृह्णन्, वदन्, व्रजन्, ईहितानीहितः, मुक्तः, एव, महाशयः ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः। शब्दार्थ । पश्यन्-देखता हुआ व्रजन्-जाता हुआ शृण्वन् सुनता हुआ | ईहिता नीहितः राग-द्वेष से स्पृशन्-स्पर्श करता हुआ मुक्तः छूटा हुआ जिघ्रन्-सूघता हुआ . एव-निश्चय करके ऐसा अश्नन्-खाता हुआ महाशयः-महात्मा पुरुष गृह्णन् ग्रहण करता हुआ मुक्तः ज्ञानी है ॥ वदन्बोलता हुआ भावार्थ। सर्वत्र देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, ग्रहण करता हुआ, बोलता हुआ और चलता हुआ भी इच्छा-द्वेष से रहित ही होता है। क्योंकि उसका चित्त महान् ब्रह्म विषे स्थित है, और इसी से वह जीवन्मुक्त है ॥ १२ ॥ मूलम् । न निन्दति न च स्तौति न हृष्यति न कुप्यति । न ददाति न गृह्णाति मुक्तः सर्वत्र नीरसः ॥ १३ ॥ पदच्छेदः । न, निन्दति, न, च, स्तौति, न, हृष्यति, न, कुष्यति, न, ददाति, न, गृह्णाति, मुक्तः, सर्वत्र, नीरसः ।।
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy