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________________ सत्रहवां प्रकरण । २६५ अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः। शब्दार्थ। न निन्दतिन निन्दा करता है न ददाति-न देता है च-और न गृह्णाति-न लेता है न स्तौतिन स्तुति करता है मुक्तः-ज्ञानी न हृष्यति=न हर्ष को प्राप्त होता है सर्वत्र सर्वत्र न कुप्यति=न क्रोध करता है । नीरसः-रस रहित है ॥ भावार्थ। अब जीवन्मुक्त के लक्षण को दिखाते हैं जो जीवन्मुक्त है, वह न किसी की निन्दा करता है, और न स्तुति करता है, और न हर्ष करता है, और न कभी काप को प्राप्त होता है, याने जो संसारी पुरुष जीवन्मुक्त को आदर-सम्मान करते हैं, वह उनकी स्तुति नहीं करता है, और जो उसको निरादर करते हैं; उनकी वह निन्दा नहीं करता है, और न वह अति उत्तम खान-पान आदिकों के प्राप्त होने पर हर्ष को प्राप्त होता है, और न घृत-हीन बासी भोजन मिलने से वह शोक करता है, और न किसी से शरीर के निर्वाह के सिवाय अधिक वस्तु के ग्रहण करने की इच्छा करता है, और न किसी से लेकर दूसरे को देता है. और न किसी से किसी को कुछ दिलवाता है, किन्तु सदा वह अपने आपमें मग्न रहता है। प्रश्न-संसार में तो लोग नग्न रहनेवाले को जीवन्मुक्त कहते हैं, और कोई-कोई भिक्षा माँगकर खानेवाले को जीवन्मुक्त कहते हैं। उत्तर-संसारी लोग सकामी होते हैं । जो सकामी होते हैं, उनको नहीं मालूम होता है कि कौन ज्ञानी है, और कौन
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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