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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
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अज्ञानी है । और उनको सत्य असत्य का विवेक भी नहीं होता है । वे दम्भ में फँसते हैं, जो हठ से वस्त्रों को त्यागकर मान के वास्ते नगे रहते हैं, और शिष्यों के कान फूँकते हैं । एक से द्रव्य लेकर दूसरे को देते हैं, या नाम के वास्ते मठादिकों को बनाते हैं । जीवन्मुक्त कदापि नहीं हो सकते हैं । वे भी चेले की तरह सकामी हैं, उनके चेलों में स्त्रीपुत्रादिकों की कामना भरी है, उनके कल्याण के लिये वे चेले नंगों को गुरु बनाकर उनकी सेवा करते हैं । जिस महात्मा का चित्त विषय भोग में है, वह अवश्य नरक को प्राप्त होता है | चाहे वह कितना ही नंगा रहे और पाखण्ड करे ।
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दृष्टान्त - एक महात्मा एक राजा के मन्दिर में बहुत काल तक रहे । एक दिन वे मर गए । उसी दिन राजा भी मर गया ।
उस नगर के बाहर जंगल में एक तपस्वी योगी रहते थे । एक आदमी उनके पास बैठा था । तपस्वी कुछ सोच करके हँसने लगे, तब उस आदमी ने पूछा कि महाराज ! विना प्रयोजन आज आप क्यों हँसते हो ? उन्होंने कहा, हम बिना प्रयोजन नहीं हँसते हैं, किन्तु राजा के पास जो महात्मा रहते थे, वे मर गये हैं और राजा भी मर गया है । और राजा स्वर्ग में गया और महात्मा नरक में गये । क्योंकि राजा का मन महात्मा में रहता था इसी वास्ते वह स्वर्ग में गया । उसको वैराग्य बना रहता था और महात्मा का मन राजभोगों में रहता था और वैराग्य से शून्य रहता था, इसी वास्ते वे नरक को गए ।
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