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सत्रहवाँ प्रकरण।
२७१ मूलम् । निर्ममोनिरहङ्कारो न किञ्चिदिति निश्चितः । अन्तर्गलितसर्वाशः कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ १९ ॥
पदच्छेदः । निर्ममः, निरहङ्कारः, न, किञ्चित्, इति, निश्चितः, अन्तर्गलितसर्वाशः, कुर्वन्, अपि, न, लिप्यते ॥ शब्दार्थ। | अन्वयः ।
शब्दार्थ । [अभ्यन्तर में | न किञ्चित्=कुछ भी नहीं है गलित हो गई
इति-ऐसा अन्तर्गलितसर्वाशः=र है सब आशाएँ निश्चितः निश्चय करता जिसकी, ऐसा
कर्म करता हुआ पुरुष निर्ममः ममता-रहित है निरहङ्कारः अहङ्कार-रहित है ।
। होता है भावार्थ ।
अन्वयः।
कुर्वन
भी
न लिप्यते= [ लिपायमान नहीं
अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! जो विद्वान् 'अहं' मम अभिमान् से शन्य है, अर्थात् 'यह मैं हूँ' और 'यह मेरा है', इस प्रकार के अभिमान से भी जो रहित है, और अधिष्ठानचेतन से अतिरिक्त किंचित् भी सत्य नहीं है, ऐसे निश्चयवाला जो पुरुष है, वह सर्व व्यवहारों को करता हुआ भी कुछ नहीं करता है। क्योंकि उसको कर्तृत्व अभिमान नहीं है ॥ १९ ॥