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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
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प्रथम शान्त-रूप परमात्मा को नमस्कार करते हैं। जो आत्मा शान्त-रूप है, जिसमें सङ्कल्प-विकल्प नहीं उत्पन्न होते हैं, और जो सुख और प्रकाश-स्वरूप है, जिसके स्वरूप के ज्ञान होते ही जगदभ्रम स्वप्न की तरह मिथ्या प्रतीत होने लगता है, उस आत्मा को नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥
मूलम् । अर्जयित्वाऽखिलानर्थान भोगानाप्नोति पुष्कलान् । नहिसर्वपरित्यागमन्तरेण सुखी भवेत् ॥२॥
पदच्छेदः । अर्जयित्वा, अखिलान्, अर्थान्, भोगान्, आप्नोति, पुष्कलान्, न, हि, सर्वपरित्यागम्, अन्तरेण, सुखी, भवेत ॥ अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ । अखिलान-संपूर्ण
आप्नोति प्राप्त होता है अर्थात्-धनों को
परन्तु-परन्तु अर्जयित्वा जोड़ करके
सर्वपरित्यागम् सबके परित्याग के पुष्कलान्सब
अन्तरेण-बिना भोगान् भोगों को
सुखी-सुखी + पुरुष-पुरुष
न भवेत्नहीं होता है। हि अवश्य
भावार्थ । प्रश्न-धनी लोग भी तो संसार में सुखी दिखाई पड़ते हैं, उनमें और ज्ञानी में क्या भेद है ?