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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
पदच्छेदः ।
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सुखे, दु:खे, नरे, नार्याम्, सम्पत्सु च विपत्सु, च, विशेषः, न, एव, धीरस्य, सर्वत्र, समदर्शिनः ॥
शब्दार्थ |
२६८
अन्वयः ।
सुखे = सुख विषे
दुःखे दुःख विषे
नरेनर विषे
नार्याम् = नारी विषे
सम्पत्सु = सम्पत्तियों में
अन्वयः ।
शब्दार्थ |
विपत्सु = विपत्तियों में सर्वत्र सर्वत्र समदर्शिनः = समदर्शी धीरस्य ज्ञानी का विशेषः = भेद वहीं है ॥
भावार्थ ।
जिसका चित्त सुख - दुःख में सम रहता है, अर्थात् शरीर का अतिसुख होने से जो हर्ष को नहीं प्राप्त होता है, और शरीर को खेद होने से जो शोक को नहीं प्राप्त होता है, और सम्पदा के प्राप्त होने पर जिसको हर्ष नहीं होता है, और विपदा के आने पर जिसको शोक नहीं होता है, वही जीवन्मुक्त है ।। १५ ।
मूलम् ।
न हिंसा नैव कारुण्यं नौद्धत्यं न च दीनता । नाश्चर्यं नैव च क्षोभः क्षीणसंसरणे नरे ॥ १६ ॥
पदच्छेदः ।
न, हिंसा, न, एव, कारुण्यम्, न, औद्धत्यम्, न, च, दीनता, न, आश्चर्यम्, न, एव, च, क्षोभः, क्षीणसंसरणे, नरे ॥