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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
शृण्वन्-सुनता हुआ
अश्नन्-खाता हुआ स्पृशन्-स्पर्श करता हुआ
यथासुखम्-सुख-पूर्वक जिघ्रन्-सूघता हुआ
आस्ते-रहता है। __भावार्थ । मैं अद्वैत आत्म-ज्ञान द्वारा कृतार्थ हुआ हूँ, ऐसी बुद्धि भी जिस विद्वान की उत्पन्न नहीं होती है, और आहारादिकों को करता हआ भी जो शरीर-सूख को उल्लंघन करके स्थित होता है, और बाह्य इन्द्रियों के व्यापारों के होने पर भी अज्ञानी मूों की तरह खेद नहीं करता है, और जो खड़ा हुआ, बैठा हुआ, चलता हुआ भी समाहितचित्तवाला है, वही धन्य है, वही ब्रह्म-रूप है ।। ८ ।।
मूलम् । शून्यादृष्टिवथा चेष्टा विकलानीन्द्रियाणि च । न स्पृहा न विरक्तिर्वा क्षीणसंसारसागरे ॥९॥
पदच्छेदः । शून्या, दृष्टि:, वृथा, चेष्टा, विकलानि, इन्द्रियाणि, च, न, स्पृहा, न, विरक्तिः, वा, क्षीणसंसारसागरे । अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ । . (नाश हुआ है संसार-/ विकलानि-विकल हो गई हैं __सागरे ।ऐसे पुरुष विषे
स्पृहा-इच्छा है दृष्टिःशून्या दृष्टि शून्य हो गई है
वा और चेष्टावृथा व्यापार जाता रहा है इन्द्रियाणि-इन्द्रियाँ
विरक्तिः विरक्तता है ।
क्षीणसंसार ) रूपी समुद्र जिसका,
नम्न