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अन्वयः ।
अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
शब्दार्थ |
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष विषे
धर्मार्थका
ममोक्षेषु
जीविते जीने विषे
तथा=और
मरणे-मरण विषे
अन्वयः ।
विश्वविलये =
भावार्थ |
हे शिष्य ! ऐसा पुरुष संसार विषे दुर्लभ है, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष और जीने मरने में उदासीन हो अर्थात् उसको सुखाकार दुःखाकार वृत्ति न व्यापे, अपने अद्वैत आत्मा में शान्त होकर स्थित रहे । सुख-दुःख सापेक्षिक है । जिसको सुख होता है, उसी को दुःख भी होता है । जिसको दुःख होता है, उसी को सुख भी होता है । हे प्रिय ! तुम इन दोनों से रहित होकर विचरो ॥ 11
कस्य =किस
उदारचित्तस्य = उदार चित्त को
हेयोपादेयता = त्याग और ग्रहण नहि नहीं है ||
मूलम् ।
वाञ्छा न विश्वविलये न द्वेषस्तस्य च स्थितौ ।
यथा जीविकया तस्माद्धन्य आस्ते यथासुखम् ॥ ७ ॥ पदच्छेदः ।
शब्दार्थ |
वाञ्छा, न, विश्वविलये, न, द्वेषः, तस्य, च, स्थितौ, यथा, जीविका, तस्मात्, धन्य, आस्ते, यथासुखम् ।।
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
विश्व के लय होने
में
शब्दार्थ | अन्वयः ।
वाञ्छा इच्छा
नहीं है