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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
पदच्छेदः ।
यः तु, भोगेषु, भुक्तेषु, न, भवति, अधिवासितः, निराकाङक्षी, तादृशः, भवदुर्लभः ॥
अन्वयः ।
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
२५६
यः =जो
भुक्तेषु =भोगे हुए भोगेषु = भोगों में
अधिवासितः = आसक्त
न भवति =नहीं होता है
अभुक्तेषु,
शब्दार्थ |
च-और
अभुक्तेषु = अभुक्त पदार्थो विषे निराकाङक्षी = आकांक्षा - रहित है तादृशः = ऐसा मनुष्य भवदुर्लभ = संसार में दुर्लभ है ||
भावार्थ |
अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! जिस
पुरुष
भोगे हुए भोग
हुए भोगों में आसक्ति नहीं है, और जो नहीं भोगे हैं, उनमें उसकी आकांक्षा भी नहीं है, परन्तु जो अपने आत्मा में ही तृप्त है, वैसा पुरुष संसार सागर विषे करोड़ों में एक ही है, अथवा एक भी दुर्लभ है ॥ ४ ॥
मूलम् ।
बुभुक्षुरिह संसारे मुमुक्षुरपि दृश्यते
भोगोमोक्षनिराकांक्षी विरलो हि महाशयः ॥ ५ ॥
पदच्छेदः ।
,
बुभुक्षुः, इह, संसारे, मुमुक्षुः अपि दृश्यते, भोगमोक्षनिराकांक्षी, विरलः, हि, महाशयः ॥