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चौथा प्रकरण । निषेध करते हैं, और गीता में भी भगवान ने कहा है कि ज्ञान-रूपी अग्नि करके उसके सब कर्म दग्ध हो जाते हैं ।
प्रश्न-कारण के नाश होने से कार्य का भी नाश हो जाता है । जैसे तन्तुओं के नाश होने से पट का भी नाश हो जाता है, वैसे ही आत्म-ज्ञान करके, अज्ञान के नाश होने से अज्ञान का कार्य जो विद्वान् का शरीर है, उसका भी नाश हो जाना चाहिए ?
ऐसी शंका किसी नैयायिक की है। इसके समाधान को कहते हैं
उत्तर-कारण अज्ञान के नाश-समकाल ही विद्वान् के शरीर इन्द्रियादिकों का भी नाश हो जाता है अर्थात् ज्ञानरूपी अग्नि करके विद्वान् के देहादिक सब भस्म हो जाते हैं, पर दग्ध हए भी उसके काम को देते हैं। जैसे 'महाभारत' में ब्रह्मास्त्र करके अर्जुन का रथ भस्म हो गया था, तथापि कृष्णजी की शक्ति से वह भस्म हुआ भी रथ चलता-फिरता था वैसे आत्म-ज्ञान करके कारण के सहित देहादिक विद्वान् के भस्म हुए भी प्रारब्ध रूपी शक्ति करके अपने-अपने कार्य को करते हैं । अथवा नैयायिक के मत में कारण के नाश से एक क्षण पीछे कार्य का नाश होता है। जैसे तन्तुओं के नाश से एक क्षण पीछे पट का नाश होता है वैसे ही अज्ञान रूपी कारण के नाश के एक क्षण पीछे विद्वान् के देहादिकों का भी नाश होता है।
यदि कहो कि देहादिक तो ज्ञान की उत्पत्ति के पीछे अनेक वर्षों तक रहते हैं, सो नहीं। जैसे अल्पकाल तक रहने