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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
भावार्थ ।
प्रश्न - कायिक, वाचिक और मानसिक कर्मों में त्याग होने से शरीर का भी त्याग हो जावेगा; क्योंकि विना कर्मों के भोजनादिक क्रिया का त्याग होगा और विना भोजन के शरीर रहेगा नहीं ?
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उत्तर - शरीर और इन्द्रियादिकों करके किया हुआ जो कर्म है, वह वास्तव में आत्मा करके किया हुआ नहीं होता है । ऐसे चितवन करके विद्वान् को जब शरीरादिकों के खान-पानादिक कर्म करने पड़ते हैं, तब वह अहंकार से रहित होकर उन कर्मों को करता हुआ भी अपने सुख-स्वरूप में ही रहता है || ३ ||
मूलम् । कर्मनैष्कर्म्यनिर्बंधभावा देहस्थयोगिनः । संयोगायोग विरहादहमासे यथासुखम् ॥ ४ ॥
पदच्छेदः ।
कर्म नैष्कर्म्यनिर्बन्धभावाः, देहस्थयोगिनः संयोगायोगविरहात्, अहम्, आसे, यथासुखम् ||
अन्वयः ।
कर्म
बन्धभावा
देहस्थयोगिनः= {
अहम् =मैं
शब्दार्थ |
कर्म और निष्कर्म
के बंधन से संयुक्त स्वभाववाले
देह विषे आसक्त योगी हैं।
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
संयोगायोग - = { 'योग' - देह के संयोग और विरहात्
पृथ
होने के कारण
यथासुखम् = सुख- पूर्वक
आसे = स्थित हूँ ||