________________
अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
पदच्छेदः ।
विरक्तः, विषयद्वेष्ठा, रागी, विषयलोलुपः, ग्रहमोक्षविहीनः, तु, न, विरक्तः, न रागवान् ॥
अन्वयः ।
शब्दार्थ | अन्वयः ।
२४४
विषय का
द्वेष
विरक्तः विरक्त है
विषयलोलुपः { नविन
राग-रागी है
विषयद्वन्द्व =
का
शब्दार्थ
ग्रह
मोक्ष - = २ त्याग रहित 5 ग्रहण और विहीन: पुरुप
न रिक्तः
न रागवान् =
विरक्त है
और न
रागवान् है ||
भावार्थ ।
अब इस वार्ता को कहते हैं कि सकामी पुरुष से निष्काम पुरुष विलक्षण है
मुमुक्षू होकर जो स्त्री-पुत्रादिक विषयों में द्वेष करता है, अर्थात द्वेषदृष्टि करके उनको अङ्गीकार नहीं करता है, किन्तु त्याग देता है, उसका नाम विरक्त है । और जो विषयों की कामना करके विषयों में लोलुप चित्तवाला है, उसका नाम रागी है । और जो पुरुष विषयों के ग्रहण और त्याग की इच्छा से रहित है, वह विरक्त सरक्त से विलक्षण अर्थात् ग्रहण -त्याग से रहित जीवन्मुक्त है ॥ ६ ॥
मूलम् । हेयोपादेयता तावत्संसारविटपाङ कुरः । स्पृहा जीवति यावद्वै निर्विचारदशास्पदम् ॥ ७ ॥