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एवम् एव-
वैसा हो
२४६ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
पदच्छेदः । प्रवृत्तौ, जायते, रागः, निवृत्तौ, द्वेषः एव, हि. निद्वन्द्वः, बालवत्, धीमान्, एवम्, एव, व्यवस्थितः ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ प्रवृत्ती-प्रवृत्ति में
निवृत्ती-निवृत्ति में रागः-राग
द्वेष-द्वेष च-और
जायते-होता है एव हि इसलिये
जैसे होवे, धीमान बुद्धिमान् पुरुष निर्द्वन्द्वः द्वन्द्व-रहित । व्यवस्थितः स्थित रहे ।।
भावार्थ । विषयों में जब राग पूर्वक प्रवृत्ति होती है, तब पूर्व से उत्तरोत्तर विषयों में राग ही उत्पन्न होता है। और जब विषयों में द्वेष-पूर्वक निवृत्ति होती है, तब पूर्व से उत्तरोत्तर विषयों में द्वेष-दृष्टि ही उत्पन्न होती है । इसी में एक दृष्टान्त कहते हैं
“एक राजा दूसरे देश को गया। उसको वहाँ पर कई एक वर्ष बीत गये । पीछे, उसकी रानी अति कामातुर होकर अपने मकान पर से इधर-उधर ताकती थी। एक सराफ का लड़का, युवा अवस्था को प्राप्त, बड़ा सुन्दर अपने कोठे पर खड़ा था । उसको देखकर रानी का मन उसकी तरफ चला गया। रानी ने अपनी लौंडी को उसके बुलाने के लिये भेजा। लौंड़ी उसको बुला लाई । रानी उससे बात चीत करने लगी। थोडी देर में लौंडी ने आकर कहा कि राजा साहब आ गये। तब उस लड़के ने कहा कि मुझको कहीं छिपाओ। रानी ने उसको पाखाने के नल में खड़ा कर दिया। इतने में राजा भीतर आ गये और नौकर से कहा, जल्दी पानी