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२४८ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
पदच्छेदः । हातुम्, इच्छति, संसारम्, रागी, दुःखजिहासया, वीतराग, हि, निर्दुःख, तस्मिन्, अपि, न, खिद्यति ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ।
_ निश्चय । पुरुष
दुःख की दुःखजि-- निवृत्ति
निर्दुःखमुक्त होता हासया की इच्छा
रहुआ (से
तस्मिन् संसार विषे संसारम् संसार को
अपि-भी हातुम्-त्यागना
(नहीं खेद इच्छति चाहता है
रागी
रागवान
हि
करके
(दुःख से
न खिद्यति प्राप्त होता
वीतरागः / राग-रहित
" । पुरुष
भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे शिष्य ! जो पुरुष विषयों में रागवाला है, वही विषय के सम्बन्ध से उत्पन्न हआ जो दुःख है, उसके त्याग की इच्छा करता हुआ संसार के त्यागने की इच्छा करता है और जो वीतराग पुरुष है, वह संसार के बने रहने पर भी खेद को नहीं प्राप्त होता है, सो पञ्चदशी में भी कहा है:
रागो लिंगमबोधस्य चित्तव्यायामभूमिषु ।
कुतो वैशाद्वलस्तस्य यस्याग्निः कोटरे तरोः ॥१॥ जिस वृक्ष के कोटर में याने जड़ के बिल में अग्नि लगी है, उस