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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
अर्थात् अधिष्ठान असंग साक्षी हो करके तुम्हीं स्थित थे, और रहोगे । क्योंकि तुम्हारे में ही यह संसार रज्जुसर्पवत् कल्पित है । अब न तेरे में बन्ध है, और न मोक्ष है । तू कृतकृत्य है ।। १८ ॥
मूलम् ।
मा संकल्पविकल्पाभ्यां चित्तं क्षोभय चिन्मय । उपशाम्य सुखं तिष्ठ स्वात्मन्यानन्दविग्रहे ॥ १९ ॥ पदच्छेदः ।
मा, संकल्पविकल्पाभ्याम्, चित्तम्, क्षोभय, चिन्मय, उपशाम्य, सुखम् तिष्ठ, स्वात्मनि, आनन्दविग्रहे ॥
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
चिन्मय = हे चैतन्यस्वरूप !
संकल्प
विकल्पा - = २ संकल्प - विकल्पों से
भ्याम्
चित्तम चित्त को
+ त्वम्=तू
मा क्षोभय मत क्षोभित कर
अन्वयः ।
शब्दार्थ |
मन को शान्त | करके
उपशाम्य=
=
आनन्द-__ f आनन्दविग्रहे । पूरित स्वात्मनि अपने स्वरूप में
सुखम् = सुख-पूर्वक तिष्ठ = स्थित हो ||
भावार्थ ।
अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे चैतन्यस्वरूप ! संकल्प और विकल्पों करके अपने चित्त को क्षुब्ध न करो, किन्तु संकल्प और विकल्प से तुम रहित होकर अपने आनन्दस्वरूप में स्थित हो । १९ ॥