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२३४ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
जो अज्ञान का नाशक हो, और अपने आत्मा के स्वरूप का बोधक हो, उसी का नाम ज्ञान है ॥ २ ॥
ज्ञान के उदय होने पर परमार्थ से हे शिष्य ! तुम एक ही हो, संसारी और असंसारी भेद तेरे नहीं हैं ॥१६॥
मूलम् । भ्रान्तिमात्रमिदं विश्वं न किञ्चिदिति निश्चयी। निर्वासनः स्फूतिमात्रो न किञ्चिदिव शाम्यति ॥१७॥
हुए को
अन्वयः। शब्दार्थ ।। अन्वयः।
शब्दार्थ। ___ इदम्य ह
निर्वासनः बासना-रहित विश्वम् संसार
स्फूतिमात्रः स्फूर्ति-मात्र है भ्रान्ति-मात्रम्-भ्रान्ति-मात्र है
[ कुछ न च-और न किञ्चित्=कुछ नहीं है
न किञ्चित् इव-२ नाई अर्थात्
वासनाइति-ऐसा
( रहित होकर निश्चय
[ शान्ति को प्राप्त निश्चयी) करनेवाला
शाम्यति
" होता है । पुरुष
भावार्थ।
हे शिष्य ! यह जगत् सब भ्रान्ति करके स्थित हो रहा है। इस जगत की अपनी सत्ता किञ्चिन्मात्र भी नहीं है। ऐसा निश्चय करके तुम वासना से रहित होकर आनन्दपूर्वक संसार में विचरो ॥ १७ ॥