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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
पदच्छेदः । भोगम्, कर्म, समाधिम्, वा, कुरु, विज्ञ, तथा, अपि, ते, चित्तम्, निरस्तसर्वाशम्, अत्यर्थम्, रोचयिष्यति ।। अन्वयः । शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ । विज्ञ हे ज्ञानस्वरूप
कुरुम्कर ते तेरा
तथा अपि-परन्तु चित्तम्-चित्त
निरस्तसर्वासब आकाशों से रहित भोगम्भोग
शम् । होता हुआ भी कर्म-कर्म
त्वाम्-तुझको वा और
अत्यर्थम् अत्यन्त समाधिम्-समाधि को
रोचयिष्यति लोभावेगा।
भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे पुत्र ! चाहे तू भोगों को भोग, चाहे तू कर्मों को कर, चाहे तू समाधि को लगा। आत्मा ज्ञान के प्रभाव करके सर्व आशाओं से रहित होकर, तेरा चित्त शान्त रहेगा अर्थात आशाओं से रहित होकर जो जो कर्म तू करेगा, कोई भी तेरे को बन्धन का हेतु न होगा। क्योंकि आशा ही बन्धन का हेतु है, इसलिये सर्व से निराश होकर, सर्व में आसक्ति से रहित होकर जब विचरेगा, तब तू सुखी होवेगा ।। २ ॥
मूलम्। आयासात्सकलो दुःखी नैनं जानाति कश्चन । अनेनैवोपदेशेन धन्यः प्राप्नोति निर्वृतिम् ॥ ३ ॥