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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
आदिकों के जितने भाव अर्थात् जन्म होते हैं, उनको जो सुखदुःखादिक प्राप्त होते हैं, वे सब अनित्य हैं, ऐसा बहुत स्थलों में देखा जाता है, क्योंकि संसार में सब देहधारियों को दु:खसुख बराबर बने रहते हैं । कोई भी ऐसा देहधारी संसार में नहीं है, जो सदैव सुखी रहे, किन्तु यत्किञ्चित् काल सुख और बहुत काल दुःख रहता है । प्रथम तो जन्मकाल का दुःख फिर बाल्यावस्था में अनेक प्रकार के रोगादिकों करके जन्य दुःख होता है । युवावस्था में भोगों से जन्य रोगादिकों करके दुःख होता है । फिर स्त्री-पुत्रादिकों में मोह से दुःखों के समूह उत्पन्न होते हैं । फिर वृद्धावस्था तो दुःखों की खानि ही है । अनेक प्रकार के विषय- जन्य सुख-दुःखादिकों को अनित्य जानकर और उनके हेतु जो शुभाशुभ कर्म हैं, उनका त्याग करके अपने आत्मानन्द में स्थित हूँ ॥ ७ ॥
इति श्रीअष्टावक्र गीतायां त्रयोदश प्रकरणं समाप्तम् ।। १३ ।।