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२२२ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
भावार्थ । __ अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे तात ! आत्मा की चिद्रूपता में अहंभावना और विपरीतभावना-रूपी मोह को मत प्राप्त हो, क्योंकि आत्मा ज्ञान-स्वरूप है और प्रकृति से भी परे है।
प्रश्न-चित्-पद का क्या अर्थ है ? और ज्ञान-पद का क्या अर्थ है ?
उत्तर-साधनान्तर नैरपेक्ष्येण स्वयं प्रकाशमान तया इतरपदार्थावभासकं यत् तच्चित् ।
जो अपने से भिन्न किसी और साधन की अपेक्षा न करके अपने प्रकाश से इतर पदार्थों को प्रकाश करे, उसी का नाम चित् है।
अज्ञाननाशकत्वे सति स्वात्मबोधकत्वं ज्ञानम् ।
जो अज्ञान को नाश करके अपने आत्मा के स्वरूप को प्रकाशित करे, उसका नाम आत्म-ज्ञान है।
अर्थप्रकाशो हि ज्ञानम् ।
जो पदार्थ को प्रकाशित करे उसी का नाम ज्ञान है, सोई आत्मा चेतन-रूप ज्ञान-स्वरूप है।
अब जड़ और चेतन के भेद को सुगम रीति से दिखलाते हैं
जो अपने को जाने और अपने से भिन्न भी सब पदार्थों को जाने, वही चेतन कहलाता है और जो अपने को न जाने और अपने से भिन्न भी किसी पदार्थ को न जाने, वह जड़ कहलाता है, सो आत्मा चेतन है । क्योंकि अपने को जानता है और अपने से भिन्न सम्पूर्ण घट पटादिक जड़ पदार्थों को भी जानता है, इसी से आत्मा चेतन है और आत्मा से भिन्न