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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
बारह वर्ष का हुआ, तब उद्दालक ने कहा कि हे श्वेतकेतो ! तू गुरुकुल में निवास करके सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन कर । क्योंकि हमारे कुल में ऐसा कोई भी नहीं हुआ है, जिसने ब्रह्मचर्य को धारण करके वेदों का अध्ययन न किया हो ।
पिता की आज्ञा को पाकर श्वेतकेतु गुरु के पास गया और ब्रह्मचर्य को धारण करके बारह वर्ष तक वेदों का अध्ययन करता रहा । जब कि सब वेदों को पढ़ चुका, तब गुरु की आज्ञा लेकर घर को चला । रास्ते में उसके चित्त मैं अभिमान उत्पन्न हुआ कि मेरा पिता मेरे बराबर विद्या में नहीं है, उनको प्रणाम करने की क्या जरूरत है । वह जब घर में आया, तब उसने पिता को प्रणाम नहीं किया । पिता जान गये, इसको विद्या का मद हुआ है । इस अहंकार को दूर करना चाहिए । पिता ने कहा कि हे श्वेतकेतो ! तुमने उस उपदेश को भी गुरु से श्रवण किया, जिस उपदेश करके अश्रु भी श्रुत हो जाता है, अज्ञात भी ज्ञात हो जाता है । तब श्वेतकेतु ने कहा कि हे पिता ! उस उपदेश को तो मैंने नहीं श्रवण किया । यदि गुरु हमारे जानते होते, तो वह हमसे अवश्य कहते । क्योंकि जितनी विद्याएँ वे जानते थे, उन सबको मेरे प्रति कहा । अब आपही कृपा करके उस उपदेश को मेरे प्रति कहिए । पुत्र को नम्र देखकर अरुणि ऋषि उपदेश करते हैं
यथा-सौम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृण्मयं विज्ञातं स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम् ॥ १ ॥
सौम्य | जैसे एक मृत्तिका के पिण्ड करके सम्पूर्ण मृत्तिका के