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पन्द्रहवाँ प्रकरण |
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है, ये सब द्वैत में ही होते हैं । द्वैत तुम्हारा रूप तीनों कालों में नहीं है इसा से तुम्हारे जन्म और विकार के अभाव होने से कर्तृत्वादिकों का भी अभाव है । शुद्ध होने से तुम्हारे में अहंकार का भी अभाव है । तुम्हारा स्वरूप ज्यों का त्यों एकरस है ।। १३ ।।
मूलम् ।
यत्त्वं पश्यसि तत्रैकस्त्वमेव प्रतिभाससे ।
किं पृथग्भासते स्वर्णात्कटकांगदनूपुरम् ॥ १४ ॥ पदच्छेदः ।
यत् त्वम्, पश्यसि, तत्र, एकः, त्वम्, एव, प्रतिभासते, किम्, पृथक्, भासते, स्वर्णात्, कटकांगदनूपुरम् ।।
अन्वयः ।
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
यत् = जिसको
त्वम्=तू
पश्यसि = देखता है तत्र उस विषे
एक: = एक
त्वम् एव = तू ही
प्रतिभाससे भासता है
किम् = क्या
कटकांगदनू पुरम्=
शब्दार्थ |
कॅगना बाजू
स्वर्णात् = सुवर्ण से
पृथक् पृथक् भासते भासता है ||
भावार्थ ।
अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! जो कार्य तुम देखते हो, सो-सो कारण रूप ही है । छांदोग्य के छठे प्रपाठक में अरुण ऋषि ने अपने श्वेतकेतु पुत्र के प्रति कहा है । जब श्वेतकेतु