________________
पन्द्रहवाँ प्रकरण ।
२३१ कार्य मृत्तिका-रूप ही जाने जाते हैं । क्योंकि कारण से कार्य का भेद नहीं होता है। जितना नाम का विषय-विकार है, केवल वाणी का कथन-मात्र ही है, केवल मृत्तिका ही सत्य है ॥ १ ॥
यथा सौम्यैकेन लोहमणिना सवं लोहमयं विज्ञातं स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं लोहमित्येव सत्यम् ॥ २॥
हे सौम्य ! जैसे स्वर्ण के ज्ञान से जितने कटक कुण्डलादिक्ष उसके कार्य हैं, सब स्वर्ण-रूप ही हैं। क्योंकि कार्य कारण से भिन्न नहीं होता है । और जितने स्वर्ण के कार्य नाम के विषय हैं, वे सब वाणी करके कथन-मात्र मिथ्या हैं। उन सब विषे अनुगत स्वर्ण ही सत्य है ।। २ ॥
इस तरह हे पुत्र ! अनेक श्रुति-वाक्यों से जब तू बोधित होगा, तब तुझको मालूम होगा कि तू ही कार्य-कारणरूप से स्थित है, तूही सच्चिदानन्द ज्ञान-स्वरूप आत्मा है ।।१४।।
मूलम् । अयं सोऽहमयं नाहं विभागमिति सन्त्यज । सर्वमात्मेति निश्चित्य निःसंकल्पःसुखीभव ॥ १५ ॥
पदच्छेदः । अयम्, सः, अहम्, अयम्, न, अहम्, इति, सन्त्यज, सर्वम्, आत्मा, इति, निश्चित्य, निःसङ्कल्पः, सुखीभव ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ। अयम्न्य ह
अयम्य ह सः वह
अहम्=मैं अहम मैं
नम्नहीं हूँ अस्मिन्हूँ
इति-ऐसे