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पन्द्रहवीं प्रकरण ।
भावार्थ ।
हे जनक ! तुम्हारा स्वरूप अनन्त चिन्मात्र रूपी समुद्र है । उसमें अविद्या और कामुक कर्मों से यह विश्व-रूपी लहरी उत्पन्न हुई है । तुम्हारे स्वरूप में यह विश्व-रूपी लहरी उदय हो, अथवा अस्त हो, तुम्हारी कोई हानि-लाभ नहीं है, क्योंकि 'तुम अधिष्ठान चेतन हो, अधिष्ठान को उसी विषे कल्पित वस्तु हानि नहीं कर सकती है । जो कभी हुई ही नहीं है, वह दूसरे को क्या हानि कर सकती है ।। ११ ।।
मूलम् ।
तात चिन्मात्ररूपोऽसि न ते भिन्नमिदं जगत् ।
अतः कस्य कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना ॥ १२ ॥
पदच्छेदः ।
तात, चिन्मात्ररूप:, असि, न, ते, भिन्नम्, इदम्, जगत्, अतः, कस्य, कथम्, कुत्र, हेयोपादेयकल्पना ।।
अन्वयः ।
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
तात हे तात ! 'चिन्मात्ररूपः = चैतन्य - रूप
असि तू है ते-तेरा
इदम् = प्रह
जगत्=जगत् भिन्नम् = तुझसे भिन्न नहीं है
अतः इसलिये
कस्य किसकी
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कथम्=योंकर
च=और
कुत्र = कहाँ
हेयोपादेयकल्पना =
शब्दार्थ |
त्याज्य और ग्राह्य की कल्पना है ||