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२२६ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० होता है, यह नियम है। देह द्रव्य है, तुम द्रष्टा हो । देह के साथ तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है। चाहे यह तुम्हारा स्थूल देह कल्प पर्यंत स्थिर रहे, चाहे अभी गिर जाय । देह के स्थिर रहने से तुम्हारी स्थिति नहीं है और देह के गिर जाने से तुम्हारा नाश नहीं है । देह की वृद्धि से तुम्हारी वृद्धि नहीं, क्योंकि देह से तुम परे हो । देह मिथ्या है, तुम सत्य हो। देह को भी तुम सत्ता स्फूर्ति देनेवाले हो। देह के भी तुम साक्षी हो, ऐसा निश्चय करके तुम जीवन्मुक्त होकर विचरो ॥ १० ॥
मूलम्। त्वय्यनन्तमहाम्भोधौ विश्ववीचिः स्वभावतः । उदेतु वास्तमायातु न ते वृद्धिर्नवा क्षतिः ॥११॥
पदच्छेदः । त्वयि, अनन्तमहाम्भोधौ, विश्ववीचिः, स्वभावतः, उदेतु, वा, अस्तम्, आयात्, न, ते, वृद्धिः, न, वा, क्षतिः ।। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ ।
अस्तम्-अस्त को अनन्तमहाम्भाचा समुद्र विषे
आयातु-प्राप्त होते हैं विश्ववीचिः-विश्व-रूप तरंग परन्तु-परन्तु स्वभावतः स्वभाव से
ते-तेरी
वृद्धिः न-न वृद्धि है उदेतु-उदय होते हैं।
वा और या और
न क्षतिः=न नाश है ॥
अन्वयः।
अनन्तमहाम्भोधौ- अपार महा- ।