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पन्द्रहवाँ प्रकरण।
२२१ तत-सो
चिन्मूर्ते हे चैतन्य-रूप त्वम्एव-तू ही है
विज्वर-संताप-रहित न संदेह इसमें संदेह नहीं
भव-हो ।।
भावार्थ । हे जनक ! जिस अधिष्ठान चेतन में यह सारा जगत् समुद्र में तरंग की तरह अभिन्न स्फुरण हो रहा है, वही चेतन तुम्हारा आत्मा है, इसवास्ते हे जनक ! तुम विगतज्वर होकर ऐसा अनुभव करो कि मैं चैतन्य-स्वरूप हूँ और संतापों से रहित हूँ॥ ७ ॥
मूलम् । श्रद्धत्स्व तात श्रद्धत्स्व नात्र मोहं कुरुष्व भोः । ज्ञानस्वरूपो भगवानात्मा त्वं प्रकृते परः ॥ ८॥
पदच्छेदः । श्रद्धत्स्व, तात, श्रद्धत्स्व, न, अत्र, मोहम्, कुरुस्व, भोः, ज्ञानस्वरूपः, भगवान्, आत्मा, त्वम्, प्रकृतेः, परः ॥ अन्वयः । शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ। तात हे सौम्य !
त्वमन्तू भो: हे प्रिय
ज्ञानस्वरूपः-ज्ञान-रूप श्रद्धत्स्व -2 श्रद्धा कर श्रद्धा कर
भगवान ईश्वर
आत्मा-परमात्मा अत्र-इसमें
प्रकृतेः प्रकृति से मोहम्मोह
पर:-परे हैं न कुरुष्व-मत कर