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पन्द्रहवाँ प्रकरण । शुद्धो मुक्तः सदैवात्मा न वै बध्येत कहिचित् । बन्धमोक्षौ मनःसंस्थौ तस्मिञ्च्छान्ते प्रशाम्यति ॥१॥
आत्मा शुद्ध है, मुक्त है, बंध से रहित है । बंध मोक्षादिक धर्म सब मन में ही स्थित रहते हैं। मन के शान्त होने से सब शान्त हो जाते हैं । इस तरह की अनेक स्मृतियाँ भी आत्मा को रागद्वेषादिकों से रहित बताती हैं ॥ १ ॥ ___ यदि रागद्वेषादिक आत्मा के स्वाभाविक धर्म माने जावें, तब मोक्ष किसी को कदापि नहीं होगा, क्योंकि स्वाभाविक धर्म की निवृत्ति किसी उपाय से भी नहीं होती है, केवल आध्यासिक धर्म उपाय से नाश होता है। आध्यासिक धर्म एक के सम्बन्ध से दूसरे में प्रतीत होने लगता है । सम्बन्ध के नाश होने से उसका भी नाश हो जाता है, जैसे बिल्लौर पत्थर के समीप लाल पुष्प के रखने से उसमें लाल रंग जो कि पुष्प का धर्म है, प्रतीत होने लगता है और जब पुष्प दूर कर दिया जाता है, तो लाल रंग जो उस पत्थर में दिखाई देता था, लोप हो जाता है । आत्मा में अन्तःकरण के धर्म रागद्वेषादिक आध्यासिक हैं, स्वाभाविक नहीं हैं, इसलिये वे दूर हो सकते हैं ।। ५ ।।
मूलम् । सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । विज्ञाय निरहंकारो निर्ममस्त्वं सुखी भव ॥ ७ ॥
पदच्छेदः । सर्वभूतेषु, च, आत्मानम्, सर्वभूतानि, च, आत्मनि, विज्ञाय, निरहंकारः निर्ममः, त्वम्, सुखी, भव ॥