________________
२१८ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
शत्रु मित्रमुदासीनो भेदाः सर्वे मनोगताः। एकात्मत्वे कथं भेदः संभावेद्वैतदर्शनात् ॥ १॥
यह शत्रु है, यह मित्र है । शत्रु से द्वेष, मित्र से राग और उदासीनता ये सब मन के ही धर्म हैं। अद्वैतदर्शी की दृष्टि में भेद कहाँ हो सकता है, द्वैतदर्शन से ही भेद होता है ।।१।।
हे जनक ! मन का सम्बन्ध कदापि तेरे साथ नहीं है, मन के अध्यास से तुम रागादिकों में अध्यास मत करो।
प्रश्न-रागद्वेष भी मुझ आत्मा ही के धर्म क्यों न हों ?
उत्तर-रागद्वेषादिक तुम्हारे धर्म नहीं हो सकते हैं, क्योंकि तुम ज्ञान-स्वरूप हो । यदि यह कहा जाय कि रागद्वेषादिक आत्मा के ही धर्म हैं, तो वे आत्मा के स्वाभाविक धर्म हैं, या आगन्तुक धर्म हैं, या आध्यासिक धर्म हैं।
वे स्वाभाविक धर्म तो हो नहीं सकते, क्योंकि श्रुतियों में और स्मृतियों में आत्मा को निर्धर्मक लिखा हैअशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसन्नित्यमगन्धवच्चयत् । अनाधनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते ॥१॥
आत्मा शब्द, स्पर्श, रूप, रसादिकों से रहित है, नाश से, गंध से भी रहित है, नित्य है, न उसका आदि है और न उसका अन्त है, महत्तत्त्व से परे है, ऐसे आत्मा को जानकर पुरुष मृत्यु के मुख से छूट जाता है ।। १ ।।
इस तरह की अनेक श्रुतियाँ आत्मा को निर्धर्मक बताती हैं