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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
ते-तेरा
साक्षी साक्षी है देहः शरीर है
निरपेक्षः इच्छा-रहित वा और
सुखम्-सुख-पूर्वक भवान्-तू
चर विचर
भावार्थ । तत्त्व-ज्ञान की प्राप्ति के लिये अष्टावक्रजी फिर उपदेश करते हैं।
हे जनक ! तुम पंचभूतात्मक देह नहीं हो, क्योंकि देह जड़ है और अनित्य है, तुम नित्य हो, चैतन्य-स्वरूप हो तुम्हारा देह के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है ।
असगोऽह्ययं पुरुष इति श्रुतेः ।
यह पुरुष अर्थात् जीवात्मा असंग है, देहादिकों के साथ सम्बंध से रहित है। इसी श्रुतिप्रमाण से तुम संयोगादिक सम्बन्धों से रहित हो और तुम कर्ता भोक्ता भी नहीं हो, क्योंकि कर्तापना और भोक्तापना ये दोनों अंतःकरण के धर्म हैं । तुम उन दोनों के भी साक्षी हो और ऐसा नियम भी है जो जिसका साक्षी होता है, वह उससे भिन्न होता है। जैसे घट का साक्षी घट से भिन्न है वैसे कर्ता भोक्ता जो अंतःकरण है, उनका साक्षी भी उनसे भिन्न है। इसमें दृष्टांत को कहते हैं
जैसे नत्यशाला में स्थित दीपक शाला के स्वामी को, सभावालों को और नर्तकी को तुल्य ही प्रकाश करता है । यह शरीर तो नत्यशाला है, अहंकार उसमें सभापति है, और विषय सब सभ्य हैं, याने सभा में बैठनेवाले हैं, और बुद्धि