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तेरहवाँ प्रकरण।
१९९ भावार्थ । जनकजी कहते हैं कि यत्न से रहित होकर यदि मैं सोता ही रहूँ, तब भी मेरी कोई हानि नहीं है और यत्नविशेष करने से मेरे को किसी फल-विशेष की सिद्धि भी नहीं होती है, इस वास्ते मैं यत्न और अयत्न में भी हर्ष और शोक को त्याग करके सुख-पूर्वक स्थित हैं। क्योंकि यत्न अयत्नादिक सब देह, इन्द्रियों के धर्म हैं, मुक्त आत्मा के नहीं हैं ।। ६ ।।
मूलम् । सुखादिरूपानियमं भावेष्वालोक्य भूरिशः । शुभाशुभे विहायास्मादहमासे यथासुखम् ॥ ७॥
पदच्छेदः । सुखादिरूपानियमम्, भावेषु, आलोक्य, भूरिशः, शुभाशुभे, विहाय, अस्मात, अहम्, आसे, यथासुखम् ॥ अन्वयः ।
शब्दार्थ । | अन्वयः । अस्मात् इसलिये
च और भावेषु=बहुत जन्मों में सुखादिरूपा-_ / सुखादिरूप की नियमम् । अनित्यता को विहाय छोड़ करके भूरिशः वारंवार
यथासुखम्-सुख-पूर्वक आलोक्य-देख करके
आसे स्थित हूँ।
भावार्थ । जनकजी कहते हैं कि अनेक जन्मों में मनुष्य और पशु
शब्दार्थ।
शुभाशुभे=
शुभ और अशुभ