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१९८ अष्टावक्र-गीता भा० टो० स०
भावार्थ । शिष्य कहता है कि हे गुरो ! लौकिकव्यवहार जो चलना, फिरना, वैठना, उठना आदिक है, इसमें भी मेरी हानि तथा लाभ कुछ भी नहीं है, क्योंकि लौकिक व्यवहार में भी अभिमान से रहित हूँ, चाहे मैं सोता रहँ, बैठा रहँ अथवा चलता फिरता रहूँ, इन सब क्रियाओं में भी मैं अपने आत्मानन्द में एकरस ज्यों का त्यों स्थित रहता हूँ ॥ ५ ॥
मूलम् । स्वपतो नास्ति मे हानिः सिद्धिर्यत्नवतो न वा। नाशोल्लासौ विहायास्मादहमासे यथासुखम् ॥ ६॥
पदच्छेदः । स्वपतः, न, अस्ति, मे, हानि:, सिद्धिः, यत्नवतः, न, वा, नाशोल्लासौ, विहाय, अस्मात्, अहम्, आसे, यथासुखम् ।। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ। मे-मुझ
सिद्धिः सिद्धि है स्वपतः सोते हुए को
अस्मात् इस कारण हानिः हानि
अहम्मैं न अस्ति नहीं है
जानहानि और लाभ वा और
नाशोल्लासौ=
1 को
विहाय-छोड़ करके मे=मुझ
यथासुखम्-सुख-पूर्वक यत्नवतः यत्न करते हए की
आसे स्थित है।
अन्वयः।
नम्न