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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
साक्षिपुरुष= १ पुरुष अर्थात् जीव है |
परमात्मनि-1 परमात्मा है।
पदच्छेदः । विज्ञाते, साक्षिपुरुष, परमात्मनि, च, ईश्वरे, नैराश्ये, बन्धमोक्ष, च, न, चिन्ता, मुक्तये, मम ।। अन्वयः। शब्दार्थ । । अन्वयः।
शब्दार्थ। मानि [ 'त्वं' पद का अर्थ साक्षी नैराश्ये आशा-रहित
बन्धमोक्षे- बन्ध के मोक्ष होने च-और तत्पद का अर्थ
मम-मुझको
मुक्तये=मुक्ति के लिये ईश्वरे ईश्वर के
चिन्ता चिन्ता विज्ञाते-जानने पर
न=नहीं है ।।
भावार्थ । देह और इन्द्रियों का साक्षी पुरुष जो 'त्वं' पद का अर्थ है, और तत्पद का अर्थ जो परमात्मा ईश्वर है, इन दोनों के लक्ष्यार्थ चेतन का 'तत्त्वमसि' महावाक्य और भागत्यामलक्षणा करके साक्षात्कार करने से और बंध और मोक्ष में भी इच्छा के अभाव होने से मुक्ति के निमित्त भी विद्वान् को कोई चिन्ता बाकी नहीं रहती है।
प्रश्न-महावाक्य का लक्षण क्या है ? और लक्षणा का अर्थ क्या है ?
उत्तर-वेद में दो प्रकार के वाक्य हैं-एक अवान्तर्वाक्य हैं, दूसरे महावाक्य हैं । दोनों के लक्षण को दिखाते हैं
स्वरूपबोधकं वाक्यमवान्तर्वाक्यम् ।