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२०८ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
अब यहाँ पर लाठी का भीतर प्रवेश तो बन सकता है, परन्तु उस में वक्ता का तात्पर्य नहीं है, किन्तु यष्टिधर के प्रवेश कराने में वक्ता का तात्पर्य है, इस वास्ते 'यष्टी'-पद का वाच्यार्थ यष्टि है, उसका त्याग न करके उसके साथ सम्बन्धवाला जो पुरुष है, उस पुरुष में जो लक्षणा करनी है, इसी का नाम अजहल्लक्षणा है।
वाच्यार्थंकदेशपरित्यागे नैकदेशवृत्तिर्जहदजहल्लक्षणा ।
अर्थात् वाच्यार्थ के एकदेश को त्याग करके एकदेश का ग्रहण करना जो है, इसी का नाम जहत् अजहत् लक्षणा है जैसे-'तत्त्वमसि ।
यहाँ पर 'तत्' पद का वाच्यार्थ सर्वज्ञत्वादिक गुणों करके युक्त ईश्वर चेतन है, और 'त्वं' पद का वाच्यार्थ अल्पज्ञत्वादिक गुणों करके युक्त जीव चेतन है। 'तत्' वह सर्वज्ञत्वादि गुणवाला ईश्वर 'त्वं' तू अल्पज्ञत्वादि गुणवाला जोव, ये जो दोनों के वाक्यार्थ हैं इनका अभेद नहीं हो सकता है, पर दोनों का लक्ष्यार्थ जो गुणों से रहित केवल चेतन है, उसी का अभेद हो सकता है, सो अभेद जहद अजहद् अर्थात् भागत्यागलक्षणा करके ही होता है। तत्पद के वाच्यार्थ का जो एकदेश सर्वज्ञत्वादिक गुण हैं, उनके त्याग करने से, और त्वं पद के वाच्यार्थ का जो एकदेश अल्पज्ञत्वादिक गुण हैं उनके भी त्याग करने से, दोनों पदों विषे एक जो लक्ष्यार्थ चेतन स्थित है, उसके ग्रहण करने से दोनों का अर्थात् ईश्वर और जीव का अभेद केवल चेतन में