________________
१९४
अष्टावक्र गीता भा० टो० स०
___ संपूर्ण विषयों में जा आसक्ति है, उस आसक्ति के त्याग करने से जो चित्त की स्थिरता हुई है, वह स्थिरता कौपीनमात्र में आसक्ति करने में नहीं होती है, ऐसी स्थिरता अति दुर्लभ है। इसी कारण से शिष्य कहता है कि पदार्थों के त्याग करने में और ग्रहण करने में जो आसक्ति है, उसको भी त्याग करके आत्मानंद में स्थित हूँ ॥ १॥
मूलम् । कुत्रापि खेदः कायस्य जिह्वा कुत्रापि खिद्यते । मनः कुत्रापि तत्त्यक्त्वा पुरुषार्थे स्थितः सुखम् ॥ २ ॥
पदच्छेदः । कुत्र, अपि, खेदः, कायस्य, जिह्वा, कुत्र, अपि, खिद्यते, मनः, कुत्र, अपि, तत्, त्यक्त्वा, पुरुषार्थे, स्थितः, सुखम् ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ । कुत्र अपि-कहीं तो
मन:-मन कायस्य-शरीर का
खिद्यते-खेद करता है खेदः दुःख है
अतः इससे कुत्र अपि-कहीं
तत्-तीनों को जिह्वाम्वाणी
त्यक्त्वा त्याग करके खिद्यते दुःखी है कुत्र अपि-कहीं
स्थितः स्थित हूँ।
भावार्थ । शारीरिक कर्मों में शरीर को खेद होता है, अर्थात शरीर के जो कर्म चलना-फिरना, सोना-जागना, लेना-देना,
सुखम्न