________________
१९२ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
अर्थात् 'मैं ब्रह्म हूँ' इस प्रकार के अपरोक्ष-ज्ञान करके जो संपूर्ण कर्मों के बंधनों से छूट गया है, वही जीवन्मुक्त है।
देहापातानन्तरं मुक्तिः विदेहमुक्तिः।
शरीर के पात होने के अनन्तर जो मुक्ति है, उसका नाम विदेह-मुक्ति है । तात्पर्य यह है कि साधनों करके क्रम से जिसने संपूर्ण शरीर और इन्द्रियादिकों की क्रिया का त्याग किया है और आत्मानंद का अनुभव किया है, वही जीवन्मुक्त है ॥ ८ ॥ इति श्रीअष्टावक्रगीतायां द्वादशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ १२॥